भारतीय अदालतों में लंबित मामलों की संख्या लाखों-करोड़ों हो चुकी

लंबित मामले- मिले समाचार वाचिका, सलमान रुश्दी जैसों को न्यायआर.के. सिन्हाप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पटना हाई कोर्ट के 100 साल पूरा होने के मौके पर देश की अदालतों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या पर चिंता जताई थी। यह बात 2016 की है। वे जब अपना वक्तव्य दे रहे थे तब देश के चोटी के वकील, जज और अन्य गणमान्य लोग वहां मौजूद थे। सारा देश जानता है कि देश की निचली से लेकर उच्चतम न्यायालयों तक में मामलों की संख्या लाखों-करोड़ों हो चुकी है और बढ़ती ही चली जा रही है। इस कारण न्याय पाने वालों को अभूतपूर्व देरी का सामना करना पड़ रहा है। उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री के रूप में अपनी तीसरी पारी में मोदी जी लंबित मामलों से जूझ रही देश की न्याय व्यवस्था में सुधार करेंगे। अगर यह होता है, तो डॉ. शीला मेहरा जैसे करोड़ों लोगों को राहत मिलेगी।



देवकी नंदन पांडे, विनोद कश्यप और अशोक वाजपेयी जैसे दिग्गज हिन्दी न्यूज रीडरों के साथ, डॉ. शीला मेहरा ने ऑल इंडिया रेडियो से दशकों तक देश-दुनिया को अपनी धीर-गंभीर आवाज में खबरें सुनाई हैं। भारत की कई पीढ़ियों ने इन सबकी गहरी आवाज और स्पष्ट उच्चारण में खबरों को पढ़ते हुए सुना है। जिन दिनों रेडियो की मार्फत देश समाचार सुनता था, तब डॉ. शीला मेहरा किसी सेलेब्रिटी से कम नहीं थीं। लगभग एक दशक पहले सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद, उनका जीवन बदल गया। उसके बाद वो अपने पति, श्री आर.के. मेहरा के साथ गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ( जीडीए) के धक्के खाने लगीं। कारण: मेहरा दंपती ने गाजियाबाद में 25 हजार रुपये में ज़मीन खरीदी थी। यह 1970 के दशक के शुरुआत की बात है। इनकी तरह कई अन्य लोगों ने भी गाजियाबाद में जमीनें खरीदी थी। दिल्ली के कोलाहल से दूर घर बनाने की उनकी उम्मीद 1975 में जीडीए द्वारा उनकी जमीन अधिग्रहण करने के साथ ही चकनाचूर हो गई। उस समय जीडीए को आवास विकास के नाम से जाना जाता था। जीडीए ने अधिग्रहीत जमीन पर बाद में प्रताप विहार को विकसित किया, लेकिन उन सभी किस्मत के मारे लोगों को एक पैसा भी नहीं मिला जिनकी जमीन अधिग्रहित की थी। वे सब के सब नौकरी पेशा लोग थे।





अपने भाग्य को कोसने के बजाय, डॉ. शीला मेहरा, उनके पति और बाकी लोग अपनी अधिग्रहित जमीन का उचित और न्यायसंगत मुआवजा पाने के लिए जीडीए से लड़ रहे हैं। मेहरा दंपती ने 2 फरवरी, 1978 को गाजियाबाद की निचली अदालत में मुकदमा दायर किया ताकि उन्हें मुआवजा मिल सके। उन्हें और शेष लोगों को जीडीए के शीर्ष अधिकारियों से आश्वासन के अलावा, कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है। वे अपने वकीलों को फीस दे रहे हैं, हालाँकि उनकी आय के स्रोत बहुत कम हैं।कब जीडीए से मुआवजा पाने के लिए लड़ रहे लोगों को न्याय मिलेगा? जीडीए जैसे विभागों के कामकाज को जानने वाले कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के एक आदेश से सैकड़ों असहाय लोगों को उनका हक मिल सकता है। जब इन लोगों को जीडीए से न्याय नहीं मिला तो इन्होंने गाजियाबाद की निचली अदालत में 1978 मुकदमा दायर किया था। इन्हें अदालत से नियमित तौर पर तारीखें मिलती हैं। अदालत की तारीख के दिन, पांच लोगों को वहाँ मौजूद रहना होता है। वे केस के जज, मुकदमे के वादी, उनके वकील, जीडीए के वकील और जीडीए के अधिकारी। पर अफसोस कि ये सब तारीख वाले दिन कभी मिल नहीं पाते। कोई न कोई जरूर ही गैर-हाजिर रहता ही है जिससे मामला टलता ही जाता है।




यह गंभीर चिंता का विषय है कि देश की विभिन्न अदालतों में लंबित मामलों की संख्या पांच करोड़ को पार कर गई है, जैसा कि 20 जुलाई, 2023 को राज्यसभा को बताया गया। देश के तब के विधि मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट, 25 उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों में 5.02 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं।

भारत में 2022 में जजों की स्वीकृत संख्या प्रति दस लाख आबादी पर 21.03 की थी। जजों की कुल स्वीकृत संख्या सर्वोच्च न्यायालय में 34, उच्च न्यायालयों में 1108, और जिला अदालतों में 24,631 थी। भारत के विधि आयोग और न्यायमूर्ति वी एस मलिमथ की समिति ने जजों की संख्या प्रति दस लाख आबादी पर 50 तक बढ़ाने की सिफारिश की थी।जजों की स्वीकृत संख्या निर्धारित होने के बावजूद, भारत की अदालतों ने जजों की रिक्ति के कारण काफी समय से पूरी क्षमता में काम नहीं किया है।




एक विचार यह भी है कि अदालतों में लंबित मामलों का निपटान न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। सरकार का अदालतों में मामलों के निपटान में कोई सीधा हस्तक्षेप नहीं है। लेकिन, विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्र और राज्य सरकारें भी मामलों के निपटान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। उदाहरण के लिए, यदि उत्तर प्रदेश के तेज-तर्रार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जीडीए को निर्देश दें तो मुआवजा चाहने वालों को तुरंत न्याय मिल सकता है। इससे डॉ. शीला मेहरा जैसे लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाई जा सकती है।




पिछली 17 फरवरी को, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा था, "निचली अदालतें ही हैं जहाँ समस्याओं का समाधान शुरू होता है, वहाँ ध्यान देने की आवश्यकता है।सुप्रीम कोर्ट में ऐसे कई मामले बढ़ रहे हैं जो खुद निचली अदालत में ही निपटने चाहिए।" लेखक सलमान रुश्दी की दिल्ली के पॉश एरिया फ्लैग स्टाफ रोड में पैतृक संपत्ति का कोर्ट में बीती आधी सदी से चल रहा कानूनी विवाद इस बात की चीख-चीख कर पुष्टि करता है कि हमारे यहां कोर्ट के रास्ते से न्याय पाना कितना कठिन और थकाने वाली प्रक्रिया है। बेशक, भारत की विधि व्यवस्था पर सवाल खड़ी करती है न्याय मिलने में होने वाली अभूतपूर्व देरी। इस तरफ तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। जरा सोचिए कि जब सलमान रुश्दी जैसी अंतरराष्ट्रीय शख्सियत को न्याय के लिए इतना जूझना पड़ रहा है, तो आम इंसान की कोर्ट में क्या हालत होती होगी। हमारे यहां कहा ही जाता है कि किसी को प्रताड़ित करना है तो उसे किसी कानूनी केस में फंसा दो या फिर पुरानी यानी सेकंड हैंड कार दिलवा दो। आप देश के किसी भी भाग में निचली अदालतों से लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जाकर देख लें। वहां पर आपको इंसाफ के लिए जूझते बेबस लोग मिलेंगे।


"न्याय में देरी, न्याय से वंचित होना" एक पुरानी कहावत है। अब समय आ गया है कि डॉ. शीला मेहरा और सलमान रुश्दी जैसे करोड़ों लोगों को सस्ता और त्वरित न्याय प्रदान किया जाए।


(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

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