क्या हम विश्व के सबसे "बड़े लोकतांत्रिक देश" होने के गौरव से वंचित होना चाहते हैं?
संसद की गरिमा और महत्व को समझें
यह सच है कि हमने 25 जून 1975 को आपातकाल लागू होने के साथ-साथ लोकतंत्र की गरिमा को छिन्न भिन्न होते हुए देखा है और वर्तमान सरकार ने उसे संविधान की हत्या दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव भी पारित किया है। निश्चित तौर पर आपातकाल ने लोकतंत्र,प्रजातंत्र की मर्यादा को छिन्न-भिन्न कर दिया था,वर्तमान परिस्थितियों में भाजपा सरकार की तीसरी पारी में जिस तरह से संसद में लोकसभा के सत्र में विपक्ष के सांसदों ने हंगामा खड़ा किया गया और माननीय सभासद तथा प्रधानमंत्री के भाषणों को तिरस्कृत करने का प्रयास किया यह भी लोकतंत्र की गरिमा और संसदीय आचरण संहिता के सर्वथा विरुद्ध और आचरण संहिता के अनुकूल कतई नहीं है। दल बदल से सरकार में व्यवधान पैदा करने और विधायकों और सांसदों की खरीद-फरोख्त से सरकार बनाने की कुचेष्टा से लोकतंत्र की गरिमा को दाग लगाने जैसा कार्य ही हैं। यह अत्यंत चिंतनिय तथा विचारणीय प्रश्न भी है कि क्यों हम विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के गौरव और महत्व से वंचित होना चाहते हैं।
स्वतंत्रता के बाद भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक शक्ति तथा गहन क्षमता वाला देश बन गया है और यही एक बड़ा कारण है कि भारत जैसे विविधता और विशालता जैसे देश में निष्पक्ष चुनाव संपन्न कर चुनी हुई सरकार शासन करती है निसंदेह भारत के लिए गौरव की बात है पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब "डिस्कवरी ऑफ इंडिया" में लिखा है कि भारत स्वयं में एक लघु विश्व है कि निसंदेह भारत पर अध्ययन करने वाले सभी चिंतकों तथा विद्वानों ने एकमत से यह माना है की भारत विविधताओं व बहुलताओं के मामले में विश्व का अनूठा एवं दिलचस्प देश है। अनेक प्रकार की भाषाएं, रीति रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, लोकगीत,नृत्य, धर्म, संप्रदाय, सामाजिक संरचनाएं और संस्थाएं इस देश को बेहद बहुलतावादी और वैविध्यपूर्ण राष्ट्र बनाती है। इस विशाल, बहु भाषाई, बहुसांस्कृतिक देश की अपनी विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, दार्शनिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, जनसांख्यिकी और भाषाई विभिन्नताएं, विषमताएँ और विशेषताएं विद्यमान है। जो इस देश की विविधता में एकता की खूबी को प्रदर्शित करती है। भारत की सामाजिक संरचना स्वयं में काफी जटिल है।
देश में समाज बहुत सारे वर्गों उप वर्गों में बटा हुआ है, इसी तरह यहां समाज में ग्रामीण, उपनगरीय, नगरीय, महा नगरीय, जनजातीय, पहाड़ी कैसे वर्गों में विभाजित हुआ है। भारत में सामाजिक वर्ग भेद के साथ अंदरुनी अंतर्द्वंद भी बहुत ज्यादा है,जैसे कि एकल परिवार और संयुक्त परिवार जातिवादी जाति विहीन समाज ग्रामीण नगरीय द्वंद विवाह संन्यास का द्वंद जो अनेक रूपों में भारतीय समाज में जनमानस के रूप में दिखाई देता है और यह द्वंद स्वतंत्रता के पश्चात से दिखाई देने लगा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जहां ग्राम स्वराज को आर्थिक विकास की धुरी मानते हुए सर्वोदय पंचायती राज स्वरोजगार एवं परस्पर सहयोग को बढ़ावा देना चाहते थे,दूसरी तरफ पंडित जवाहरलाल नेहरू का झुकाव औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े क्षेत्र को तीव्र औद्योगीकरण , कल कारखानों को मजबूत करने की ओर था। इसलिए भारतीय समाज में मिश्रित अर्थव्यवस्था की नई व्यवस्था के माध्यम से इसका समुचित समाधान निकाला गया था।
भारत के राजनीतिक द्वंद भी बहुतायत में रहे हैं। आजादी से पहले कांग्रेस के गरम पंथ हुआ नरम पंथ का द्वंद चलता रहा है और पूर्ण स्वराज की मांग का उहापोह तथा आजादी के बाद संविधान निर्माण के समय संविधान की संघात्मक तथा एकात्मक रचना का विवाद या समाजवाद पूंजीवाद का द्वंद इसी तरह भारत दोनों में उलझता रहा है, और उसके बाद समाधान निकाल कर उससे बाहर भी आया है। भारत धार्मिक ,दार्शनिक व आध्यात्मिक दृष्टि से एक बेहद समृद्ध राष्ट्र रहा है। विश्व के चार प्रमुख धर्मों हिंदू, सिख, बौद्ध ,जैन की जन्मस्थली भारत ही रही है। इसी तरह भारत वेद पुराणों, उपनिषदों ,ब्राह्मणों, समितियों और आरण्यकों के प्राचीन साहित्य से लबालब भी रहा है। इसके अलावा इस्लाम ,ईसाई ,पारसी जैसे धर्मों को देश में स्वयं सम्मानित कर अपनी मुख्यधारा में समाहित भी किया है।
भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विदेश नीति के मामले में गुटनिरपेक्षता की नीति को अपना कर किसी भी गुट में न रहते हुए स्वतंत्र विकास की नीति को अपनाया था। जो कालांतर में भारत की विदेश नीति का आधार स्तंभ रहा है। भारत में बहुआयामी विविधता भी रही है। स्वतंत्रता संग्राम में राजनेताओं ने जहां एक स्वर में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का पक्ष लिया था वहीं दूसरी तरफ देश के कुछ हिस्सों में हिंदी विरोधी आंदोलन तक हुए हैं। भारत में संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा देते हुए कुल 22 भारतीय भाषाओं को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित कर भाषाई सौहार्द और समन्वय का बखूबी परिचय भी दिया है। और भारत में भारतीय संस्कृति के बहुलतावादी चरित्र को बनाए रखने की भविष्य में भी निरंतर आवश्यकता बनी रहेगी। भारतीय समाज की विविधता पूर्ण सांस्कृतिक,साहित्यिक, दार्शनिक व्यवस्था के बीच विद्वानों ने चिंतन मनन कर किसके बीच का समाधान भी निकाला है एक का सबसे बड़ा उदाहरण भारत में सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों को महत्व देते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था का अंगीकार करना है।
भारत की विजेताओं के विभिन्न नेताओं ने भारत देश के अंदरूनी मामले को लेकर देश की अर्थव्यवस्था सामाजिक व्यवस्था तथा राजनीतिक व्यवस्था को काफी मजबूत तथा पुख्ता भी किया है। भारत की विविधता में एकता के सिद्धांत पर चलते हुए भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था सामाजिक व्यवस्था राजनीतिक व्यवस्था तथा विदेशी नीति पर एक मजबूत आधार स्तंभ रखकर अपनी विश्व में एक अलग छवि तथा स्थान बनाया है। भारत में अनेक विविधताओं विषमताओं को विशेषता बनाकर समाधान अपने बीच ही खोज कर विश्व को एक कीर्तिमान बनाकर दिखाया है। आज भारत मैं इतनी बड़ी जनसंख्या और विभिन्न जातीय धर्म संस्कृति भाषाएं होने के बावजूद एकजुटता की नई मिसाल दिखाकर विश्व के किसी भी देश को टक्कर देने की स्थिति में है। भारत आज विकासशील देशों में अग्रणी देश माना जाता है। भारत की यही विविधता,विषमता ,साइंस, टेक्नोलॉजी,मेडिकल साइंस तथा सामरिक क्षेत्र में अद्भुत एकजुटता किसी भी देश के आक्रमण का सामना करने के लिए सीना तान कर खड़ा होने की शक्ति सामर्थ और ताकत भी प्रदान करता है। स्वतंत्रता के बाद भारत ने जितनी प्रगति और वैश्विक स्तर पर विदेशी देशों का विश्वास अर्जित किया है वह निसंदेह भारत की प्रजातांत्रिक लोकतांत्रिक परंपरा के कारण ही है। भारत की विविधता में एकता भारत की एक बड़ी शक्ति है जिसे हमें निरंतर बनाए रखना होगा तब जाकर हम किसी भी देश के सामने सिर उठाकर खड़े हो सकते हैं।
संजीव ठाकुर, चिंतक, वर्ल्ड रिकॉर्ड धारक लेखक, स्तंभकार,